नए भारत में इतिहास की जगह

नरेंद्र मोदी बहुत बार कह चुके हैं कि वह एक नया भारत बनाना चाहते हैं। एक नया भारत, जिसमें हर भारतीय के पास अपना घर हो, जिसमें बिजली, पानी और घरेलू गैस की सुविधाएं होंगी। एक नया भारत, जिसमें हर नौजवान के पास रोजगार होगा। यह इसलिए अच्छा सपना है कि जब तक आम भारतीय के पास ये बुनियादी चीजें नहीं होंगी, तब तक भारत की जगह दुनिया के आर्थिक महाशक्तियों की श्रेणी में नहीं हो सकती है। सवाल यह है कि इस नए भारत में इतिहास की कोई जगह होगी या नहीं। यह सवाल पूछना इसलिए जरूरी हो गया है, क्योंकि जगह-जगह मोदी सरकार अपने इस दूसरे दौर में इतिहास को मिटाने का प्रयास करती दिख रही है।
दिल्ली में ऐतिहासिक संसद को संग्रहालय में तब्दील करके एक नया संसद भवन बनाने की तैयारियां शुरू हो गई हैं। नई दिल्ली के इस सबसे ऐतिहासिक हिस्से में नएपन लाने के इतने प्रयास होने लग गए हैं कि लगता है कि जैसे इतिहास को मिटाकर एक नया इतिहास लिखने की कोशिश हो रही है। वाराणसी जैसे प्राचीन शहर की भी शक्ल बदली जा रही है। पुरानी गलियां जहां थीं, वहां अब नया ‘कॉरिडोर’ बन रहा है, जो गंगा जी से लेकर विश्वनाथ मंदिर तक जाएगा। पिछले सप्ताह आगरा की बारी आई। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि आगरा का नाम बदल कर अग्रवन किया जा सकता है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यही इस शहर का प्राचीन नाम हुआ करता था।
सच पूछिए, तो मुझे हमारे पुराने शहरों के इस नवीनीकरण से तकलीफ यही है कि नए भारत के ये नए शहर उतने ही गंदे और बदसूरत होंगे, जितने पुराने भारत के शहर हैं। मैं पिछली बार आगरा सड़क के रास्ते उस आलीशान नए एक्सप्रेस-वे से होकर गई थी, जो मायावती के दौर में बना था। जब तक हम एक्सप्रेस-वे पर थे, तब तक ऐसा लगा, जैसे किसी अति-आधूनिक, विकसित देश में पहुंच गए हों। लेकिन जब एक्सप्रेस-वे समाप्त हुआ और हम आगरा शहर में दाखिल हुए, तो वही पुरानी, गंदी, टूटी गलियां और बस्तियां दिखीं, जिनको देखकर ऐसा लगता है, जैसे किसी जादूगर ने ताजमहल को किसी विशाल कूड़े के ढेर पर खड़ा किया है। आगरा का हाल इतना खराब है कि पुरानी ऐतिहासिक इमारतों के आसपास नाम के वास्ते भी सफाई नहीं दिखती है। ताजमहल के पड़ोस में संगमरमर के उन कारीगरों के वंशजों की बस्ती है। यह बस्ती शायद इस इमारत के निर्माण के समय से ही है। यह बस्ती इतनी बदसूरत है कि यहां पर्यटक जाते नहीं हैं। आगरा के लाल किले के चारों तरफ जो पुराना तालाब है, उसमें गंदा, बदबूदार पानी है।
ऐसी ही प्रशासनिक लापरवाही वाराणसी में भी दिखती है। पिछली बार जब मैं वाराणसी गई थी, तो वहां कॉरिडोर की तैयारियां दिखी थीं और अस्सी घाट पर नयी इमारतें भी दिखाई पड़ी थीं। नरेंद्र मोदी जब से वाराणसी के सांसद बने हैं, यहां के घाटों की काफी हद तक सफाई हुई है। लेकिन जो सबसे जरूरी परिवर्तन आना चाहिए, वह न तो आया है और न ही कोई उसके बारे में सोच रहा है। हमारे इस सबसे प्राचीन शहर में घाटों के आसपास और पुरानी गलियों में जब तक मोटर गाड़ियों पर पाबंदी नहीं लगती है, तब तक बनारस बद से बदतर होता रहेगा। विकसित देशों के प्राचीन शहरों में मोटर गाड़ियों का आना-जाना बंद कर दिया जाता है। देश की राजधानी में जब तक वायु प्रदूषण कम करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं, तब तक दिल्ली में भी नयापन लाना बेकार है। नए भारत में इतिहास का सम्मान जरूरी है।