भय, आशंकाएं और समाधान

कुछ बातें हैं, जो कवि कह सकते हैं, हम पत्रकारों से कहीं ज्यादा अच्छी तरह। सो इस लेख को शुरू करती हूं राहत इंदौरी के एक शेर से जो नागरिकता कानून को लेकर देश भर में हो रहे बवाल को राजनीतिक पंडितों के लंबे लेखों और टीवी की लंबी, तीखी चर्चाओं से कहीं बेहतर समझाता है थोड़े से शब्दों में। सो शेर सुनिए: सभी का खून शामिल है, इस देश की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है। आज अगर मुस्लिम छात्रों में इस कानून का विरोध ज्यादा दिख रहा है, तो इसलिए कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने कुछ ऐसी बातें कही हैं हाल में, जिनसे मुसलमानों को लगने लगा है कि इस कानून और जल्द आने वाली एनआरसी के निशाने पर सिर्फ मुसलमान हैं।
याद कीजिए कि संसद में कानून पारित होने से पहले गृह मंत्री ने कई बार कहा कि घुसपैठिये दीमक की तरह फैल चुके हैं देश में और उनको चुन-चुन के निकाल कर बाहर फेंक दिया जाएगा। इसके बाद आया ऐसा कानून, जिसने भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार स्पष्ट तौर पर एक समाज को धर्म के नाम पर बाहर रखा है। यानी पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धर्म के कारण उत्पीड़ित सिख, हिंदू, बौद्ध, जैन और ईसाई लोगों के लिए भारत में जल्दी नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है इस कानून में। सो सिर्फ मुसलमान घुसपैठियों को गृह मंत्री दीमक मानते हैं। अमित शाह ने फिर कहा है, जैसे असम में एनआरसी आया है, वैसा पूरे देश में आएगा। भारत के अधिकतर मुसलमान अति-गरीब श्रेणी में आते हैं, इनके पास अपनी भारतीयता साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है। इनका क्या होगा एनआरसी आने के बाद?
जब देश भर में छात्र सड़कों पर उतर आए नागरिकता संधोधन कानून के विरोध में तो प्रधानमंत्री ने कहा कि उनके कपड़ों से दिखता है कि विरोध करने वाले कौन हैं। जब विरोध बढ़ता गया, तो पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री ने क्रोधित हो कर अपनी एक चुनावी भाषण में पूछा कि क्या कांग्रेस चाहती है कि हर पाकिस्तानी को भारत का नागरिक बनाया जाए। ऐसी बात गृह मंत्री भी कह चुके हैं। राहुल गांधी पर ताना कसते हुए उन्होंने कुछ हफ्ते पहले कहा, ‘राहुल बाबा कहते हैं ये लोग कहां जाएंगे, क्या खाएंगे, क्या उनके चचेरे भाई लगते हैं?’
इस तरह के भाषण न दिए होते देश के सबसे बड़े राजनेताओं ने तो हो सकता है, इतना विरोध न दिखता देश की सड़कों पर। जब दिखने लगा तो विपक्ष के कई मुख्यमंत्री और राजनेता भी विरोध करने लगे हैं एनआरसी का। इनमें वे लोग भी हैं, जिन्होंने संसद में सरकर का समर्थन किया था कानून को पारित करने के लिए। भय अगर है, मुस्लिम समाज को तो इसलिए कि उनको दिखने लग गया है मोदी का दूसरा दौर शुरू होने के बाद कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ सिर्फ खोखला नारा साबित होने लगा है।
न्यूरम्बर्ग कानूनों की याद ताजा हो गई है, जिसे हिटलर ने यहूदियों को जर्मनी से बेदखल करने के लिए बनाए थे। नागरिकता कानून बनने के बाद ही यहूदियों पर अत्याचार का लंबा, घिनौना दौर शुरू हुआ था। सो अगर आज मुसलमानों को लगने लगा है कि उनकी नागरिकता खतरे में है, तो उनकी आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हंै।